पत्थरों के इस शहर में
तपती, खामोश दुपहर में
सभ्यता के कचरे में
वह छिरती चंद सिक्को के लिए
बिनती कांटे,कीलें
ज़िंदगी के घाव सीने के लिए
इक लोहे की बुत सी वह
चलती ढेर पर लोहे के
लोहे के इस बेजान से शहर में
बिनती टुकड़े टुकड़े लोहे के
कई कई टुकड़ो में बंटी रोटी के लिए
हर रोज़ की यही कहानी
कूड़े के ढेर में ही ज़िंदगी जानी
पेट की आग बुझाने को
सभ्य कहलाने वाले शहर की
खामोश गलियों में उम्र गुज़र जानी
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