Wednesday, September 28, 2022

अभिमन्यु

 कुरुक्षेत्र की भूमि

रंगी थी रक्त से

महायुद्ध की आहुति

बनी थी मानव अस्थियां

दहकते अंगारों की भूख में

शेष न कोई जीवन था


कुलदीपक ..जिसे 

आंधियों से बचाना था

कुल की वंश बेल

जिसे आगे बढ़ाना था

हाय!रे नियति

आज उसे स्वयं

बलिवेदी पर चढ़ाना था


रण में प्रस्थान को

अभिमन्यु खड़ा था

अनिष्ट की आशंका से

माता का हृदय डरा था

रोक ले बढ़ कर

अभिमन्यु को रण में जाने से

हृदय ऐसे ऊहापोह से भरा था


भाँप मनोदशा

माँ और पत्नी की

सहज स्वरों में योद्धा बोला था

क्षत्राणी का दूध पिया

कैसे विमुख हो जाऊं धर्म से??

सिंह की सन्तति हूँ

कैसे न दहाड़ भरूँ

श्वानों की ललकार पे


जीवन से अवश्य प्रेम मुझे

पर मृत्यु से कदाचित

नहीं भयभीत मैं

प्राणों के मोह में यदि

कर्तव्य से विमुख हो जाऊं

तो है धिक्कार 

क्षत्रिय जीवन पे

यदि मृत्यु ही आज 

मेरा परिणाम है तो

यह भी है स्वीकार मुझे


रणभूमि न्याय करेगी

अहंकारियों का दर्प हरेगी

वीरोचित गति जो मैंने पाई

उऋण हो अमर हो जाऊंगा

युग-युगों तक क्षत्रिय 

कुल की शान कहलाऊंगा


मानो आज वह अपना

भविष्य बांचता था

मूंद कर नेत्र नियति के

हृदय में झांकता था

दृढ़ था हृदय

परिणाम न अबूझ था

निहारता सूर्य को मानो 

मांगता उसका तेज था


दिवस तेरहवाँ 

चक्रव्यूह सजा था

सौभद्र सज्जित साहस से

व्यूह भेदने खड़ा था

छ द्वार तोड़ दिए

सातवें द्वार पर काल

भेष बदल खड़ा था

किंतु युवक मृत्यु से

किंचित न डरा था


परिणाम प्रतिकूल होता

देख अचंभित 

द्रोणाचार्य और कर्ण थे

कर मंत्रणा

नैतिकता की परित्यक्त

गिरे योद्धा धर्म से

सातवें द्वार पर

अकेले सिंह को

घेर कर मारा

श्वानों की भांति

तथाकथित सूरमाओं ने


कुरुक्षेत्र आज लज्जित था

योद्धा धर्म विचलित था

कलंक में गिरे कौरव थे

क्षत-विक्षत ,रक्त रंजित

पांडव नन्दन था

घृष्टता अट्टहास करती थी

वीरता अंतिम श्वाश भरती थी


हे!सूर्य तू साक्षी

देना संदेश मेरी माता को

जब महारथी च्युत हुए धर्म से

अकेले,निःशस्त्र को

घेर कर मारा अधर्म से

सौ-सौ अक्षौहिणी सेनाओं

के नायक भी जब डरे यम से

तो भी तेरा पुत्र नहीं गिरा

अपने क्षत्रिय धर्म से


हे!व्योम देना संदेश

कहना मेरी उत्तरा को 

जीवन पथ पर हमारा 

साथ इतना ही था प्रिये

क्षमाप्रार्थी हूँ तुम्हारे

वैधव्य के लिए

मुक्त करना मुझे तुम

बंधनों से अपने

भविष्य तुम्हें निहारता प्रिये

नव अंकुर नव प्राण लिए

पांडवों की थाथी तुम सहेजना

कुलवधु की धर्म लाज लिए


देह भूमि पर निष्प्राण पड़ी

अनंत यात्रा पर आत्मा चली

स्वामी जो संसार के

विधाता जो बैतरणी पार के

स्वयं नारायण का अवतार

विचलित हृदय नीर बहाते नयन 

अभिमन्यु की काया पे


अमर हो गया जो मर के

अमिट हो गया जो मिट के

मुक्त हो गया जो जीवन चक्र से

धर्म पथ पर अडिग हो के

सार्थक हो गया जीवन

तेरा अभिमन्यु..

वीरोचित मृत्यु चुन के।।

2 comments:

  1. कालचक्र के चक्रव्यूह में फँस
    अभिमन्यु ने कब
    बाहर आना चाहा था,

    ये और बात है कि
    कौरव दल ने साजिश कर
    उसको मार गिराया था.

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