जो लैला भी तू
मजनूँ भी तू ही था
उनका मिलना बिछड़ना
बस तेरी ही रज़ा था
तो क्यों तूने
लैला को दिया हुस्न
मजनूँ को नवाज़ा
इश्क़ से
जब दोनों के
मुकद्दर में
बिछड़ना ही लिखा था,
जो रंग भी तू
बहार भी तू ही था
तेरी मर्जी ही बाग
का
सजना था
तो क्यों गुलों को
नाज़ुकई
आंधियों को दी
बेरुखी
जब दोनों को
एक दूजे से उलट
चलना था,
जो जमीं भी तू
आसमां भी तू
तेरी चाह ही दोनों
का
एक दूजे पर झुकना
था
क्यों दी मज़बूरी
तरसने की
क्यों रेख लगावट
की दिलों में
जब दोनों को
क्षितिज पर भी न
मिलना था.
14.03.2023
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