Wednesday, June 25, 2025

पत्थरों के शहर में

 पत्थरों के इस शहर में

तपती, खामोश दुपहर में

सभ्यता के कचरे में

वह छिरती चंद सिक्को के लिए

बिनती कांटे,कीलें

ज़िंदगी के घाव सीने के लिए

इक लोहे की बुत सी वह

चलती ढेर पर लोहे के

लोहे के इस बेजान से शहर में

बिनती टुकड़े टुकड़े लोहे के 

कई कई टुकड़ो में बंटी रोटी के लिए

हर रोज़ की यही कहानी

कूड़े के ढेर में ही ज़िंदगी जानी

पेट की आग बुझाने को

सभ्य कहलाने वाले शहर की

खामोश गलियों में उम्र गुज़र जानी

Wednesday, June 4, 2025

 मैं अपनी वंशबेल का

आखिरी बूटा, अंतिम शाख हूँ

है क्यों ह्रदय व्यथित,उद्वेग से भरा हुआ

टूटना तो हर बूटे को,

हर शाख का निश्चित जीवन

फिर क्यों ह्रदय प्रश्नों से है घिरा हुआ


खुद में समेटे खुद की दुनिया

मैं इस दुनिया का 

इकलौता मुसाफिर तो नही हूँ

है यायावरी नसीब अपना

तो नियति को स्वीकारने में

फिर क्यों, कोलाहल है हुआ


मैं अपनी वंश परम्परा का

आखिरी निशान हूँ

क्यों भयभीत सा हृदय मेरा

मिटते तो वो भी, 

हैं जो उत्कीर्ण प्रस्तरों पर

फिर क्यों हृदय विषाद से है घिरा हुआ


27.05.25