घिर जाए मन
जो कभी दुविधा से
हो जाए उजाड़
दुनिया की भीड़ भाड़ से
पग हों छलनी
राह के शूलों से
दृष्टि होवे भ्रमित
गहरी धुंध से
श्वान भरते हों हुंकार
लड़ने को सिंह से
श्वास में घुले विष
मानो निकले भुजंग से
इस शोर में
थमना, निर्विकार से
निकालना स्वयं को
दुविधा के ज्वार से
छूना क्षितिज को
गुज़र, राह के शूलों से
देखना इक किरण को
लड़ते हुए काली धुंध से
धैर्य से उठाना कदम
भिड़ जाना श्वानों के झुंड से
बांधना विष को कंठ पे
भुजंगधर,अभ्यंकर से
युद्ध है तो युद्ध ही सही
ये चुनौती है स्वीकार मुझे
भयभीत न होता क्षत्रिय
पिनाक की टंकार से
ठहरना ओ! वक़्त
लिखना है नाम अपना मुझे
इस अम्बर,धरा पर
तलवार की धार से
14.09.23
No comments:
Post a Comment