वक़्त की पैमाइश पर
कभी दिखे जो विपरीत खड़े
अदृश्य कारण ने हों पाँव जकड़े,
इसे नियति का लेख मान
स्वीकारना तू!
सदा शब्द ही नहीं बोलते
मौन भी बोलता है कभी
और शब्द होते मजबूर,
आँखों की भाषा तब
पहचानना तू!
जीवन सागर में उत्पात करें लहरें
होकर विवश इन लहरों से
कभी डोले जो नैया उलट धार,
इसे जीवन का खेल मान
स्वीकारना तू!
जो सजाता, उजाड़ता जगत को
उसने ही लिखे स्मित और अश्रु के
ऐसे खेल कई,
इसे विधि का विधान
जानना तू!
वक़्त की चाक पर घूमते
दिन रात, एक दूसरे के उलट
देखते पहरों में जीवन को कटते,
ऐसी मौन विवशता को
पहचानना तू!
विपरीत ध्रुव साधते धरा को
दूर दिखते पर दूर नहीं
युगों की प्रतीक्षा मिलती क्षितिज पे
प्रकृति का यह सत्य
जानना तू!
+
25.10.23
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