कलम में रोशनाई पड़ी है तो कुछ उकेरेगी कागज़ पर,इसी तर्ज पर दुनिया मे आएं है तो जियेएँगे ही। जियेएँगे तो पर कैसे ये महत्वपूर्ण हैं। जिंदगी तो ईश्वर प्रदत्त है पर जीवन जीने की कला,जीवन के प्रति सोच इंसानी प्रकृति।
आज दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति परेशान, दुखी, निराश,थका, हारा हुआ सा है। लोगों में वो ज़ज्बा, वो हौसला दिखता ही नहीं जो मुसीबतों को पलट दे। हिमालय से भागीरथी को धरती पर उतार दे।जवानी को जोश का प्रतीक माना जाता है लेकिन आज ये जोश तो उम्र के किसी भी पड़ाव पर दिखता ही नहीं। अपितु कई बार हम एक ऐसी उम्र के व्यक्ति से जीवन के प्रति विरक्ति की बातें सुनते और महसूस करते हैं जिसने अभी इस जीवन को ठीक से जाना ही नहीं।
क्या परमात्मा ने जीवन त्याग के लिए हमें जीवन दिया है? क्या भोग घृणा की वस्तु है? क्या संसार की गति सन्सार से भागने वाले निर्धारित करते हैं?
क्या जीवन मे सृजन वैराग्य से उत्पन्न हुआ है? इन प्रश्नों के उत्तर आखिर क्या है?
अध्यात्म एक सत्य है,मानव मस्तिष्क की सर्वोच्च गति का मार्ग,पर हम ये कैसे भूल जाते हैं यह मार्ग संसार से होकर गुजरता है। जहाँ हमारे कुछ पूर्व कर्मो के आधार पर दायित्त्व निर्धारित किये है उसी परम् पिता ने जिसके नाम पर कई बार हम संसार से भागने का स्वांग रचते हैं।
आध्यात्मिक मतिभ्रम के इस दौर में त्याग की विचित्र परिभाषाएं और महिमामंडन किया जाता है बगैर उसके अर्थ को समझे। एक बालक से ये अपेक्षा करना कि वो बचपन का त्याग कर दे,एक युवा को प्रेम की नैसर्गिक भावना से दूर रहने को विवश करना,एक गृहस्थ को बुद्धिभ्रष्ट कर गृहत्याग को प्रेरित करना आध्यामिकता नहीं बल्कि ईश्वर की व्यवस्था के विरुद्ध अविश्वास है।
स्मरण रहे त्याग सदैव उसका ही होता है जो आपने प्राप्त किया,अर्जित किया अपने प्रयासों से। जीवन जिया ही नहीं ,संसार को प्राप्त किया ही नहीं, कुछ भी स्वयं अर्जित किया ही नहीं तो फिर त्यागा क्या? जीवन ईश्वर ने दिया, उम्र और उसकी गति प्रकृति ने निर्धारित की,इनके बीच रहते हुए अर्जित करना ही जीवन का उद्देश्य है। यह अर्जन संसार मे एक योद्धा की भांति पावँ जमाने से होता है न कि मुँह छुपा कर संसार से भागने से। इस अर्जन का आशय माया अर्जित करना मात्र नहीं है,श्री प्राप्त करना इसका लक्ष्य है। माया मोह का कारण है और श्री यश का। माया अधिकारपूर्ण लिप्सा का साधन है और श्री न्यायपूर्ण भोग का।
मोह व्यक्ति को जकड़ता है इस जकड़न से खुद को मुक्त करने का प्रयास आध्यात्म है। यह समझने का प्रयास करना कि हम इस संसार मे आये क्यों?यह जीवन कितने ही और जीवन को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने का साधन है इसे स्वीकार कर समर्पण करना ईश्वर में आस्था है।आपका जीवन सिर्फ आपका नहीं यह जानना आवश्यक है।
जीवन विरक्ति नहीं नैतिक आसक्ति है,न्यायपूर्ण भोग है।
जिस प्रकार नदी असीम जलराशि को स्वयं में सिंचित रखती है किंतु खुद सारा जल नहीं पी जाती,औरों के लिए जीवन पथ पर अथक बहती है। यही साधना है,यही तपस्या है। यही जीवन का उद्देश्य है न कि जीवन से हार कर निराश होकर अपनी पराजय को मोह त्याग,सांसारिक विरक्ति नाम पर छुपा लेना। परिणाम ईश्वर द्वारा निर्धारित है लेकिन कर्म करना मनुष्य का धर्म है। प्रत्येक स्थिति से जूझने का हौसला ईश्वर पर विश्वास को दर्शाता है। क्योंकि ईश्वर संघर्ष करने वालों के साथ है,सत्य,न्याय और धर्म के साथ है। संसार मे रहते हुए ईश्वर के मार्ग पर चल कर सत्य की खोज इस जीवन का उद्देश्य है। महायोगी शिव की तरह कर्म,साधना और वियोग को जीना जीवन की परम गति है।
08.05.24
No comments:
Post a Comment